कविता - "आश "
ना जाने कब से आश लगाए
इन आँखों कि कोई प्यास बुझाये
तुमने रात अंधेरी देखी
मैने अंधयारे रोज जलाये
हर दिन सुन्दर माला सा
बिन बताये कोई फेरे जाये
श्याम सुन्दर जैसा दृश्य
ना जाने अब क्यों ना भाये
प्रेम प्रसंग सब दूर छुट गये
दोस्त यार भी ना सताये
मात पिता कि यादें थामें
कि सर ना कभी उनका झुक जाये
माना में अपनों का अनमोल नहीं
लेकिन खोटा सिक्का ये चल जाये
छोटी सी तो आश है मेरी
के मेरी मंजिल मुझे दिख जाये
ना जाने कब से भाग रहा हूँ
इन पैरों को भी आराम हों जाये
अब नींदों में महक ना आती
मेरे सपनें मुझे जगायें
ना जाने कब से आश लगाए
इन आँखों कि कोई प्यास बुझाये |
Author - Vikash Soni
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