तारीखे बहुत आयी हमारी पेशी कि, कम्बख्त हम वक़्त कि अदालत के मुल्ज़िम जो ठहरे,
खुद से ही खुद को सजा दे रहे हम, जैसे खुद से ही हम किसी जेल में आकर हो ठहरे,
मगर कोई नहीं अब जो मुलाक़ात को, हमारे लिए ठहरे,
शायद अनजाने कोई बड़ा गुनाह हो गया हमसे, तभी तो कोई वकील तक नहीं जो अर्जी लगाकर हमारी पैरवी को ठहरे,
अब हम मुस्कुराकर, बड़ी तहजीफ से सभी से बात करते है,
कि हमारे अच्छे वर्ताव से, कोई तो हमें, यहाँ से वक़्त के पहले रिहा करदे,
ताकि जो ख्वाब,इस चार दीवारी में हमसे युँ बिखरे,
कल फिर पूरा करें, उन्हें हम सबेरे,
हमारा गुनहा बड़ा है या छोटा, वो तो एक दिन इस वक़्त कि अदालत में साबित हो ही जायेगा,
मगर हम अपने ख्वाबो के लिए कब तक अपनी पैरोल के लिए ठहरे,
तारीखे बहुत आयी हमारी पेशी कि, कम्बख्त हम वक़्त कि अदालत के मुल्ज़िम जो ठहरे|
Author - Vikash soni
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