लक्ष्मी संवाद -"कविता "
जिस वेतन को तुम, पल -पल तरसे, तुम उसको कहा लुटाते हो,
जुआ-शराब, मास -मटन, गुटखा- धूम्रपान में बिना सोचे समझें उड़ाते हो,
में लक्ष्मी में कैसे ठहरु, तुम मुर्ख के हाथों में, तुम मुझे कहा कभी बचाते हो,
ना जाने किस हवस की खातिर, बेश्याओं पर छिपकर मुझे उड़ाते हो,
इसके बाद जब आते घर के खर्चे, तुम कर्जे में पड़ जाते हो,
कोसोगे बेकार मुझे, भाग्य, अपने बालम को, फिर बिना काम पछताते हो,
पहले देखो तुम खुद को, फिर देखो अपने आँगन को, तुम ऐसे क्यों इतराते हो,
में लक्ष्मी में ठहरु उसके घर, जो इन दुष्कर्मों से दूर रहा,
तुम मेरे कैसे बालक हो, जो मुझसे पिछा छुड़ाते हो |
Author - Vikash soni
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