भेदों के दाता - कविता
भले मनुष्य तुम्हें कहा जाता हो मगर भेदों के तुम दाता हो,
इतने भेद बनाये तुमने, इतने तो भेद नहीं,
क्या इस बात का तुम को थोड़ा खेद नहीं,
कुछ लोगों के दुष्कर्मों पर हम क्यों सब में युँ रावण ढूढ़े,
हर ह्रदय में जब राम बसा है तो क्यूँ है हम अपनी आँखें मुदें,
तुम अपने इस झूठे जीवन पर इतना क्यों इतराते हो,
यह शरीर माटी का है,तुम इस पर धमण्ड क्यों खाते हो,
फिर तुमने क्यों खुद को ऐसे वर्गो में छाटा जी,
हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई के भागों में खुद को बाटा जी,
क्या तुम्हें पता है, पिछले जन्म कौन अभागे थे तुम,
या आने वाले कल क्या होकर जन्मों गे,
फिर पल भर के दिन को तुम अपना क्यों बताते हो,
क्या ऐसे ही आपस में तुम नफरत की दिवार बनाते हो,
फिर क्यों अपने से छोटों को तुम इनमें भेद सिखाते हो,
जो सच है ही नहीं उस सच को तुम खुद से ही राचाते हो,
सच तो ये है, इंसानियत एक जाति है, सभी धर्म एक- दूसरे के पर्यायवाची है,
मुझे तो धर्मों की बस यही परिभाषा आती है,
फिर क्यों कुछ ठेकेदारों के बहकावे में तुम आतंकी हो जाते हो,
क्या हुआ 4 दिन मिलजुलकर आपस में प्रेम से तुम रह लोगे जी,
शायद अपने इस रचत सत्य को खुद से झूठ कह दोगे जी,
इसलिए तुम डर जाते बात ना ये समझना चाहते,
मगर उस ईश्वर के कहने पर, तुम को तो यह समझना जी,
कि आने वाली पीढ़ी को भेद ना तुम सिखाना जी,
Author- Vikash soni
No comments:
Post a Comment